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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 47 
कच के समक्ष एक विचित्र दुविधा थी । आश्रम में प्रवेश के समय गुरू शुक्राचार्य ने उससे ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का वचन ले लिया था लेकिन देवयानी उसका ब्रह्मचर्य व्रत स्खलित कराने पर तुली हुई थी । वह आचार्य के व्रत का पालन करे अथवा देवयानी के प्रेम के सागर में उतर जाये ? दो नावों वर एक साथ सवारी संभव नहीं है । जो व्यक्ति ऐसा करता है उसका डूबना तय है । कच किसी एक की बात माने तो भी उसके लिए समस्या है ।  इधर गिरे तो कुंआ और उधर गिरे तो खाई । यह लोकोत्ति कच पर पूर्णतया लागू हो रही थी । आचार्य को दिये गये वचन का पालन भी करना था और देवयानी को अप्रसन्न भी नहीं करना था । बहुत कठिन मार्ग था कच का । वह देवयानी को उतना महत्व नहीं देता यदि नारद जी ने उसे देवयानी को प्रसन्न रखने के लिए नहीं कहा होता । वह जानता था कि देवयानी उससे अथाह प्रेम करती है । वह अपनी भाव भंगिमा, आंखों के संकेत और स्पर्श से अनेक बार अपने मन के भाव प्रकट कर चुकी है कि वह उससे अनन्य प्रेम करती है । वह भी उससे प्रेम करना चाहता था किन्तु शुक्राचार्य को दिया गया वचन इसमें अवरोध उत्पन्न कर रहा था । यही वह द्वंद्व था जिसमें कच घिरा हुआ था कि वह क्या करे और क्या ना करे ? 

देवयानी ने कितनी बार अपने शहद से भरे हुए अधर उसके अधरों के सम्मुख कर दिये थे और वह चाहती थी कि कच उन अधरों का रसपान करे । उस समय उसकी दशा मधुमेह के उस रोगी के सदृश हो जाती थी जिसके समक्ष मिष्ठान्न का पूरा थाल परोस दिया गया हो और वह लालायित होते हुए भी मिष्ठान्न के थाल को परे सरकाने को मजबूर हो जाता हो । जब प्रथम बार देवयानी अपने अमृत तुल्य अधर उसके अधरों के समीप लेकर आई थी और वह अपनी सागर से भी गहरी आंखों से उन अधरों का रस पान करने का निमंत्रण दे रही थी तो उसने अपनी कामना पर किस प्रकार नियंत्रण स्थापित किया यह वह ही जानता है । उसके अधर कितने अधीर हो रहे थे देवयानी के अधरों से चिपकने के लिए ? जब उसने न चाहते हुए भी अपना मुंह देवयानी के मुंह के सामने से परे कर लिया था तब देवयानी को कितना अप्रिय लगा था । अमर्ष से उसका मुंह रक्ताभ हो गया था और उसकी सदैव प्रेम की वर्षा करने वाली कमल सदृश आंखें क्रोध में भरकर अग्नि वर्षा करने लगी थीं ।  उसकी विवशता तो देखिये कि वह उसे स्पष्ट कह भी नहीं सकता था कि वह ऐसा आचरण क्यों कर रहा है ? कच भगवान से प्रार्थना करता कि हे भगवान उसके जैसी परिस्थिति और किसी के भी समक्ष उत्पन्न ना करे । 

कच से देवयानी प्रतिदिन शिवालय में मिलती थी । उसकी एक झलक भर पाने के लिए वह उसकी कितनी प्रतीक्षा करती थी यह कच को भी ज्ञात है । उसने देवयानी को चोरी चोरी उसकी प्रतीक्षा करते देखा है ।  कभी कभी तो कच जानबूझकर शिवालय में विलंब से यह सोचकर आता था कि अब तक तो देवयानी वहां से जा चुकी होगी, परन्तु वह वहां पर बैठी मिलती थी और वह वहां बैठकर भजन कीर्तन करने लग जाती थी । उसके आने के बाद उसका एक मधुर मुस्कान से स्वागत करती है, देवयानी । वह जानता है कि देवयानी पर उसके प्रेम का इतना प्रभाव है कि वह उसके दर्शन मात्र से ही प्रसन्न हो जाती थी । तब उसका हृदय देवयानी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता है । वह प्रेम के महासागर में आकंठ डूबी हुई है । इस उम्र में तरुणियां विक्षिप्तों की तरह प्रेम करती हैं । उन्हें प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ दिखाई ही नहीं देता है । 

कच देवयानी को प्रसन्न रखना चाहता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि देवयानी की प्रसन्नता की कुंजी तो वह स्वयं है । वह उसके लिए विभिन्न प्रकार के उपहार लेकर आता है । अभी एक दिन एक शिष्य कह रहा था कि आश्रम के निकट ही वन में एक विशेष प्रकार के फल का वृक्ष है जिसमें इस ऋतु में वह फल आता है । उस फल के जैसा अन्य कोई फल इस जगत में नहीं है, ऐसा लोग कहते हैं । उसका नाम "मिष्ट" बताया ।  कच उस फल को तोड़कर देवयानी को भेंट करना चाहता था । देवयानी उस फल को खाकर कर बहुत प्रसन्न होगी और उसकी प्रसन्नता को देखकर कच भी प्रसन्न हो जाएगा । कच ने मिष्ट फल को लाने का मन बना लिया । 

कच अपनी कुटिया से "मिष्ट" फल लाने वन की ओर चल दिया । रास्ते में उसे ध्यान आया कि देवयानी और शुक्राचार्य दोनों ने ही उसे आश्रम से बाहर जाने के लिए मना किया था । अचानक कच के पैर वहीं पर रुक गये । देवयानी की बात वह टाल सकता था किन्तु आचार्य की आज्ञा कैसे टाल सकता था ? उसने सोचा कि वह वृक्ष आश्रम के एकदम नजदीक ही तो है इसलिए वह जल्दी ही मिष्ट फल लेकर वापिस आश्रम आ जाएगा । इसका पता न तो देवयानी को चलेगा और न ही आचार्य को । रसीला मिष्ट फल खाकर देवयानी कितनी आनंदित होगी ? यह सोचकर उसके पैर वन की ओर बढते चले गये । 

वह दूसरे शिष्यों से निगाहें बचाता हुआ आश्रम के बाहर सघन वन में आ गया । उसे मिष्ट फल वाले वृक्ष को पहचानने में अधिक समस्या नहीं आई । मिष्ट फल देखकर कच उसे पहचान गया । बिना समय गंवाये कच शीघ्रता से उस वृक्ष पर चढ गया और कुछ मिष्ट फल शीघ्रता से तोड़ने लगा । जब उसने पर्याप्त मात्रा में मिष्ट फल तोड़ लिये तब वह वृक्ष से नीचे उतरने लगा । जैसे ही उसने वृक्ष के नीचे देखा , वह अवाक् रह गया । अनेक दैत्य सैनिक विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर वृक्ष के नीचे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे । वह इन असुरों से घिर गया था । वृक्ष से भागकर भी वह कहीं जा नहीं सकता था । उसके पास वृक्ष से नीचे उतरने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं था । 

जैसे ही कच वृक्ष से नीचे उतरा , उसे दैत्य सैनिकों ने घेर लिया और वे उसे मारने लगे । उनके प्रमुख ने उससे पूछा 
"तेरा नाम क्या है और कहां से आया है" ? 
"मेरा नाम कच है और मैं शुक्राचार्य से "नीतिशास्त्र" का अध्ययन करने हेतु देवलोक से आया हूं" । कच ने सत्य बात बता दी । 
"तुम असत्य बोल रहे हो । तुम मृत संजीवनी विद्या चोरी करने आए हो । हमारा गुप्तचर विभाग कह रहा है" धमकाते हुए एक प्रमुख सैनिक बोला 
"मैंने सत्य ही कहा है, आप चाहें तो आचार्य से ज्ञात कर सकते हैं" ? 
"हमें क्या आवश्यकता है आचार्य से ज्ञात करने की ? यह तो आपको सिद्ध करना है कि आप वास्तव में "नीतिशास्त्र" का अध्ययन करने ही आए हैं मृत संजीवनी विद्याको चुराने नहीं" । 

कच के पास अपने निर्दोष होने का कोई प्रमाण नहीं था इसलिए वह शांत ही रहा । उसे शांत देखकर दैत्य सैनिकों ने उसे एक चोर समझ लिया और वे सब के सब उस पर पिल पड़े । उन सैनिकों ने कच को इतना मारा कि उसकी मृत्यु हो गई । 

समय के कुछ अंतराल के पश्चात उसे अपनी देह में कुछ हलचल सी महसूस हुई तो उसने अपनी आंखें खोल दीं । उसने अपना बदन देखा, वह एकदम सकुशल था । कहीं कोई चोट या घाव के निशान नहीं थे उसके बदन पर । स्वयं को सकुशल देखकर वह हतप्रभ रह गया और प्रभु की लीला समझ कर झटपट उस बैठा । तत्पश्चात कच अपने आश्रम की ओर चल दिया । 

आश्रम में आने पर उसे ज्ञात हुआ कि उसे लेकर सब लोग बहुत चिंतित और क्षुब्ध थे । कच को रास्ते में एक वरिष्ठ मिल गया । उसने उससे ने पूछा 
"कच, कहां चले गये थे तुम" ? 

कच क्या प्रत्युत्तर देता ? जो उसके साथ घटना घटी थी यदि वह उसे सुनाता तो क्या कोई उस पर विश्वास कर लेता  ? कच ने उस वरिष्ठ शिष्य को कोई उत्तर नहीं दिया । वह चुपचाप आगे बढता चला गया । इतने में एक साधिका कच के पास आई और कहने लगी "आचार्य आपको याद कर रहे हैं" । 

आचार्य का नाम सुनकर कच भयभीत हो गया । "यदि आचार्य को ज्ञात हो गया कि वह उनकी आज्ञा की अवहेलना करके मिष्ट फल लाने वन में गया था तो आचार्य उसके संबंध में कैसी धारणा बनायेंगे ? परन्तु अब क्या हो सकता था ?  

कच साधिका के साथ आचार्य की कुटिया पर आ गया । कच को देखते ही देवयानी प्रसन्न हो गई और उत्साह अतिरेक में उसने कच का हाथ थाम लिया । उसके मुंह से बार बार एक ही प्रश्न निकल रहा था 
"तुम कहां चले गये थे कच ? तुम्हें आश्रम से बाहर जाने से मैंने मना किया था फिर भी तुम चले गये ? तुमने ये भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा" ? 

कच देवयानी के प्रश्नों से निरुत्तर हो गया । 

श्री हरि 
16.7.23 

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3 Comments

Abhilasha Deshpande

14-Aug-2023 11:12 AM

Very nice

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Hari Shanker Goyal "Hari"

18-Jul-2023 11:02 AM

🌷🌷🙏🙏

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